पश्चिम बंगाल में राजनीतिक तनाव एक नए पड़ाव पर पहुंच गया है, जहां तृणमूल कांग्रेस (TMC) के वरिष्ठ सांसद कल्याण बनर्जी और राज्य के राज्यपाल सी. वी. आनंद बोस ने एक-दूसरे के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दी है। यह विवाद बनर्जी द्वारा राजभवन (गवर्नर हाउस) में हथियार और गोला-बारूद जमा करने और वहां से बीजेपी कार्यकर्ताओं को हथियार देने का गंभीर आरोप लगाने के बाद शुरू हुआ।
बनर्जी ने हेयर स्ट्रीट पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराते हुए बोस पर आरोप लगाया कि उन्होंने “कुछ अज्ञात राजनीतिक प्रेरित व्यक्तियों” के साथ मिलकर अलगाववादी गतिविधियों को भड़काने वाले बयान दिए हैं, जो भारत की “संप्रभुता, एकता और अखंडता” को खतरे में डालते हैं। उन्होंने BNS (भारतीय न्याय संहिता) की कई धाराओं के तहत पुलिस कार्रवाई की मांग की है, जिनमें आपराधिक साजिश, उकसाने वाले बयान और देश को अस्थिर करने की भावना शामिल है।
इससे पहले, राज्यपाल बोस ने बनर्जी के आरोपों के बाद उन पर मानहानि और अन्य गम्भीर आपराधिक धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज करवाई थी। राजभवन की ओर से कहा गया कि बनर्जी की बयानबाजी “भड़काऊ, विस्फोटक और गैर-जिम्मेदाराना” है। राज्यपाल का कहना है कि आरोपों की जांच के लिए उन्होंने राजभवन परिसर में कोलकाता पुलिस, CRPF और बॉम्ब-खोज दल सहित अन्य सुरक्षा एजेंसियों के साथ तलाशी अभियान चलाया, लेकिन उन्होंने दावा किया कि तलाशी के बाद “कुछ भी अवैध नहीं मिला”।
बोस ने TMC सांसद को चुनौती देते हुए कहा है कि अगर उनके आरोप झूठे साबित हुए, तो उन्हें बिना शर्त माफी मांगनी चाहिए। इसके अलावा, राज्यपाल ने राजभवन को सुबह-सुबह पत्रकारों और नागरिक समाज के लिए खोलने का भी ऐलान किया है, ताकि बनर्जी के दावों की सार्वजनिक जांच हो सके और पारदर्शिता बनी रहे।
यह टकराव सिर्फ एक आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित नहीं है — यह एक गहरे राजनीतिक और संवैधानिक मसले की ओर इशारा करता है। बनर्जी का कहना है कि राज्यपाल “राजनीतिक गठजोड़” में है और वह बीजेपी से जुड़े लोगों को संरक्षण दे रहा है, जो सार्वजनिक सुरक्षा और राज्य की इकाई के लिए खतरा हैं। वहीं, बोस की ओर से यह आरोप लगाया गया है कि बनर्जी ने संवैधानिक पदाधिकारी के खिलाफ ग़लत बयान देकर गवर्नर हाउस की गरिमा को ठेस पहुंचाई है।
विश्लेषण की दृष्टि से यह झगड़ा पश्चिम बंगाल की राजनीति में चरम पर पहुंचता दिख रहा है — क्योंकि यह न सिर्फ सियासी आरोप-प्रत्यारोप है, बल्कि संवैधानिक पद की गरिमा, राज्यपाल की भूमिका और पार्टी-राजनैतिक समीकरणों पर भी गहरा असर डाल सकता है। अगर यह मामला पुलिस जांच और अदालतों में पहुंचता है, तो इसकी परिणति राज्य सरकार और राजभवन के बीच लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष में चुनौतियों को और गहरा कर सकती है।
