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बसपा की नई रणनीति: मायावती संगठन संभालेंगी

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उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अपनी राजनीति की पिच तैयार करना शुरू कर दिया है। पार्टी ने अपनी परंपरागत विचारधारा और 2007 के “सोशल इंजीनियरिंग” मॉडल को दोबारा सक्रिय करने की योजना बनाई है। इस रणनीति के तहत दलित, मुस्लिम, ओबीसी और सवर्ण समाज को एक मंच पर लाने की कोशिश की जा रही है, ताकि सामाजिक समीकरणों में व्यापक बदलाव लाया जा सके।

इस नए गठन में पार्टी प्रमुख मायावती संगठन की रीढ़ बनेंगी और पार्टी की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों पर नजर रखेंगी। वहीं, उनकी भतीजी आकाश आनंद को पार्टी के युवाओं और मैदान स्तर पर माहौल तैयार करने की जिम्मेदारी दी गई है। राज्यभर में “भाईचारा कमेटियाँ” बनाई जाएँगी, जो समाज के विभिन्न तबकों को जोड़ने का काम करेंगी।

बसपा ने यह निर्णय लिया है कि अब हर तीन महीने में विधानसभा प्रभारियों (constituency-level in-charge) के काम की समीक्षा की जाएगी। यदि किसी का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं पाया गया, तो उन्हें बदलने की कार्रवाई होगी। इससे यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि प्रत्याशी समय रहते जनता के बीच सक्रिय हों और स्थानीय मुद्दों पर काम करें।

पार्टी ने यह भी फैसला किया है कि अप्रैल 2026 तक 403 विधानसभा सीटों पर संभावित प्रत्याशियों की सूची तैयार कर ली जाएगी और उन्हें “विधानसभा प्रभारी” के रूप में पेश किया जाएगा। इस तरह से पार्टी यह देखना चाहती है कि सभी सीटों पर तैयारिया समय रहते हो जाएँ।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस रणनीति का उद्देश्य बसपा को एक बार फिर शक्तिशाली राजनीतिक बल के रूप में स्थापित करना है। 2007 में जब बसपा ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी, तब भी उसे सामाजिक इंजीनियरिंग की विशेष पहचान मिली थी। उस मॉडल को दोहराने की कोशिश इस समय पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण दिखाई देती है।

हालाँकि चुनौतियाँ बहुत हैं। पिछली चुनावी हारों ने पार्टी की संगठनात्मक कमजोरियों को उजागर किया है। कई पुराने सांसदों और विधायकों के बाहर जाने या संघर्ष के बाद अब नई पीढ़ी को भरोसा जुटाना है। इसके अलावा, सत्तारूढ़ दलों और अन्य विरोधी पार्टियों की रणनीतियाँ भी जटिल एवं संयोजनयुक्त हैं।

आने वाले महीनों में यह देखना होगा कि यह नई रणनीति कितनी सफल होती है — क्या बसपा इसे जनता तक पहुँचाने में सफल होगी, या यह प्रयास केवल घोषणाओं तक ही सीमित रह जाएगा। कहीं यह राजनीतिक नाटक बनकर न रह जाए, उसे तय करेगा वो समय और मैदान की लड़ाई।

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