क्या कहा गया — मदनी का बयान
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मदनी ने कहा कि शब्द Jihad (जिहाद) को “हिंसा, आतंकवाद या नकारात्मकता” से जोड़कर पेश करना गलत है। उनका कहना है कि जिहाद का असली मतलब है “अन्याय, उत्पीड़न और दमन के खिलाफ संघर्ष” — यानी तब-तब जिहाद होगा जब zulm होगा।
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उन्होंने यह भी कहा कि मीडिया, सरकार और कुछ राजनीतिक दल “लव जिहाद”, “लैंड जिहाद”, “एजुकेशन जिहाद”, “थूक जिहाद” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके जिहाद की असल धार्मिक भावना को गलत ढंग से पेश करने की कोशिश कर रहे हैं।
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मदनी ने आरोप लगाया कि न्यायपालिका — विशेष रूप से फैसलों जैसे Babri Masjid verdict और Triple Talaq Ban — से यह संदेश जाता है कि अदालतें “सरकार के दबाव में काम कर रही हैं।” उन्होंने कहा कि अगर अदालतें संविधान और कानून के प्रति वफादार नहीं होंगी तो उन्हें “Supreme” नहीं कहा जा सकता।
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मदनी ने यह भी दावा किया कि कई मुस्लिमों की धार्मिक और सामाजिक आज़ादी पर प्रहार हो रहा है: वक्फ संपत्तियों में दखल-अंदाज़ी, अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन, और उन पर भेदभाव।
विवाद और प्रतिक्रियाएँ
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उनके इस बयान को लेकर पूरे देश में सियासी तूफान उठ खड़ा हुआ है। कई लोग इस बयान को “भड़काऊ,” “विरोध-उकसाने वाला” और “देश को बांटने वाला” बता रहे हैं।
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Arif Mohammad Khan (उत्तर प्रदेश / बिहार के राज्यपाल) ने भी मदनी की बातों पर आपत्ति जताई है। उन्होंने कहा कि जिहाद का सही मतलब बच्चों को सिखाया नहीं जा रहा है और कई शिक्षण संस्थान उसके असली अर्थ को बदलकर पढ़ा रहे हैं।
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कई धार्मिक और सामाजिक विद्वानों ने मदनी के बयान को “समाज में उन्माद पैदा करने वाला” बताया है, और कहा कि अगर जिहाद को ‘हर तरह के विरोध’ से जोड़ दिया जाए, तो इसके दायरे और मतलब बहुत भ्रमित हो जाता है।
स्थिति अब — बहस जारी
मदनी का यह बयान एक बार फिर से यह दिखाता है कि “जिहाद” जैसे धार्मिक शब्दों की व्याख्या — और उनका इस्तेमाल — भारत में कितना संवेदनशील विषय है। जहां एक ओर मदनी इसे इस्लाम की “सच्ची” आत्मरक्षा और न्याय के लिए संघर्ष बता रहे हैं, वहीं दूसरी ओर कई लोग इसे “सांतों में कट्टरता” या “धार्मिक उकसावे” का आधार मान रहे हैं।
इस बीच, अदालतों, वक्फ, धार्मिक-सामाजिक संस्थानों, मीडिया — सबकी नैतिक और कानूनी जिम्मेदारियाँ उजागर हो रही हैं। देशभर में यह चर्चा बढ़ रही है कि धार्मिक आदर्श और संवैधानिक ढांचा — दोनों को कैसे संतुलित रखा जाए।
