उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने सत्तारूढ़ योगी आदित्यनाथ सरकार पर एक सरकारी विज्ञापन को लेकर तीखा हमला किया है, जिसमें कहा गया कि उपमुख्यमंत्री के पद को पोस्टर-विज्ञापन में छोड़ दिया गया है। उन्होंने इस विज्ञापन के हवाले से सवाल उठाया है कि क्या राज्य सरकार ने उपमुख्यमंत्री के पद को अप्रत्यक्ष रूप से समाप्त कर दिया है।
विशेष रूप से, दीपोत्सव-2025 को लेकर जारी किए गए विज्ञापन में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें तो शामिल थीं, लेकिन दोनों उपमुख्यमंत्री — केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक — के नाम या चित्र नहीं थे। अखिलेश यादव ने इसे “प्रभुत्ववादी सोच” का प्रतीक बताया है, जिसमें कुछ नेताओं को किनारे कर दिया गया है।
उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से भी अपनी आपत्ति दर्ज कराई, लिखा:
“जनता पूछ रही है कि यूपी भाजपा सरकार में ‘उप मुख्यमंत्री’ के दोनों पद समाप्त कर दिए गए हैं क्या? विज्ञापन में कनिष्ठ मंत्रियों के नाम तो दिख रहे हैं लेकिन डिप्टी सीएम साहब लोगों के नहीं…”
यह विवाद ऐसे समय में सामने आया है जब राज्य में बड़े उत्सव-आयोजन चल रहे हैं और सरकारी विज्ञापन-प्रचार भी अपने चरम पर है। अखिलेश यादव ने इसे भाजपा शासन-शैली की प्रतीक बताया जिसमें राजनीतिक प्रभाव और पदानुक्रम में बदलाव देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक विज्ञापन नहीं, बल्कि उस सत्ता-चिन्ह का संकेत है जो प्रतिपक्ष को संदेह में डाल रही है।
विज्ञापन में उपमुख्यमंत्रियों के नाम न होने के अलावा यह भी ध्यान देने योग्य है कि सूची में कृषि मंत्री और पर्यटन मंत्री जैसे अन्य नाम शामिल थे। इस तथ्य को अखिलेश ने एक राजनीतिक संकेत के रूप में देखा है कि उपमुख्यमंत्रियों की भूमिका पीछे हट रही है।
यदि इस घटना को भौतिक रूप से देखें तो इस तरह-किस्म का विज्ञापन सरकार के संचार стратегии का हिस्सा हो सकता है, लेकिन राजनीतिक रूप से इसका मतलब यह निकला कि सत्ता में बैठे कुछ वरिष्ठ नेताओं को या तो नजरअंदाज किया जा रहा है या उन्हें मीडिया-प्रचार से अलग रखा गया है। यह संकेत है कि विपक्ष इसके माध्यम से सरकार की छवि और आंतरिक संतुलन को चुनौती दे रहा है।
इससे पहले भी अखिलेश यादव ने सरकार पर विभिन्न मौकों पर आरोप लगाए हैं — उदाहरण के लिए उन्होंने कहा था कि सरकार में पीड़ित वर्गों के प्रतिनिधियों को दम घुट रहा है। अब इस विज्ञापन विवाद ने उस से बढ़कर सवाल खड़े कर दिए हैं कि क्या वास्तव में उपमुख्यमंत्री की संजीदा भूमिका में कमी आई है या यह केवल एक संचार दोष है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस तरह के विवाद का असर आगामी चुनावों पर भी पड़ सकता है, खासकर जब विपक्ष ऐसे झटके राजनीति के मैदान में दे रहा हो। प्रदेश के अंदर सत्ता-संबंधित संतुलन, दलित-ओबीसी समीकरण, और मीडियाई छवि—इन सब पर इस तरह के संकेत प्रभाव डाल सकते हैं।
संक्षिप्त रूप में कहा जाए तो — यह सिर्फ एक विज्ञापन का मसला नहीं, बल्कि सत्ता-संचार, पद-प्रभाव तथा राजनीतिक संकेतों से भरी कहानी है, जिसमें उपमुख्यमंत्रियों का नाम विज्ञापन से गायब होता है और विपक्ष इसे सत्ता के अंदर छिपे संदेश के रूप में ले रहा है।
