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क्या ईरान की बढ़ती ताकत ही बन गई दुश्मन?

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ईरान और इजरायल के बीच चल रहे युद्ध में पहली बार ऐसा हुआ है कि मुस्लिम बहुल देश ईरान के साथ खुलकर खड़े नहीं हो रहे। पश्चिम एशिया में सालों से चल रहे तनाव के बीच यह एक बड़ा बदलाव है। इसका कारण सिर्फ राजनीतिक या रणनीतिक नहीं है, बल्कि धार्मिक मतभेद भी इसकी जड़ में हैं।

ईरान एक शिया बहुल देश है, जबकि अधिकांश मुस्लिम देशों जैसे कि सऊदी अरब, यूएई, कतर, जॉर्डन और मिस्र में सुन्नी आबादी का वर्चस्व है। शिया और सुन्नी के बीच सैकड़ों साल पुराना धार्मिक मतभेद है, जो केवल पूजा-पद्धति तक सीमित नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक संरचना तक फैला है।

धार्मिक मतभेद और शक्ति संघर्ष

ईरान का कई सालों से यह प्रयास रहा है कि वह पूरे इस्लामी जगत में नेतृत्व करे। लेकिन सुन्नी देशों ने इसे हमेशा शंका की नजर से देखा। यही कारण है कि इन देशों ने इजरायल के खिलाफ हो रहे युद्ध में चुप्पी साध रखी है।

कूटनीतिक संतुलन और अमेरिका से संबंध

सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और अन्य खाड़ी देश अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों के साथ घनिष्ठ संबंध रखते हैं। ईरान का खुला समर्थन करने का अर्थ होगा अमेरिका से टकराव। इन देशों की सैन्य, आर्थिक और सुरक्षा व्यवस्था काफी हद तक अमेरिकी नेटवर्क पर निर्भर है।

आर्थिक हित और तेल व्यापार

ईरान-इजरायल युद्ध के कारण खाड़ी क्षेत्र में तेल आपूर्ति पर असर पड़ सकता है। ये देश नहीं चाहते कि क्षेत्र में युद्ध का दायरा बढ़े और उनकी अर्थव्यवस्था खतरे में पड़े। इसलिए वे संयम बरत रहे हैं और खुलकर किसी का पक्ष नहीं ले रहे।

ईरान के प्रॉक्सी समूहों की कमजोरी

ईरान अपने प्रॉक्सी समूह जैसे हिजबुल्ला, हमास और हूथी विद्रोहियों के जरिए क्षेत्र में दबदबा बनाने की कोशिश करता रहा है। लेकिन हाल के वर्षों में इनमें से कई समूह कमजोर हुए हैं। इसके चलते भी क्षेत्रीय देशों में ईरान के प्रति भरोसा नहीं है।

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