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संसद पर हमला: जब गुस्सा चरम पर था, फिर भी क्यों नहीं हुआ युद्ध?

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13 दिसंबर 2001 को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के सबसे बड़े प्रतीक संसद भवन पर हुआ आतंकी हमला देश के लिए एक गहरा आघात था। इस हमले में आतंकियों का मकसद देश के शीर्ष नेतृत्व को निशाना बनाना था, लेकिन सुरक्षा बलों की सतर्कता से एक बड़ा संकट टल गया। इसके बाद पूरे देश में बदले की मांग उठी और भारत सरकार ने तत्काल ऑपरेशन पराक्रम के तहत पाकिस्तान सीमा पर लाखों सैनिकों की तैनाती कर दी। यह आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा सैन्य जमावड़ा था, जिसने साफ संकेत दिया कि भारत किसी भी हद तक जाने को तैयार है।

हालांकि, इतने बड़े सैन्य दबाव के बावजूद भारत ने सीधा युद्ध शुरू नहीं किया। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह थी राजनीतिक और रणनीतिक संतुलन। उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश थे और किसी भी सैन्य टकराव के परमाणु युद्ध में बदलने का खतरा बना हुआ था। सैन्य नेतृत्व की ओर से यह भी संकेत दिया गया कि पूरी तैयारी और निर्णायक हमले के लिए समय की आवश्यकता होगी। इसके साथ ही 9/11 के बाद बदले अंतरराष्ट्रीय हालात में अमेरिका समेत कई वैश्विक शक्तियों का दबाव भी था कि दक्षिण एशिया में युद्ध न भड़के।

सरकार ने यह आकलन किया कि तात्कालिक भावनाओं में लिया गया फैसला देश को लंबे और विनाशकारी युद्ध में झोंक सकता है। इसलिए सैन्य कार्रवाई की बजाय कूटनीतिक दबाव, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक समर्थन जुटाने की रणनीति अपनाई गई। नतीजतन, ऑपरेशन पराक्रम महीनों चला, लेकिन बिना प्रत्यक्ष युद्ध के समाप्त हुआ। संसद हमला भारत की सुरक्षा नीति में एक बड़ा मोड़ साबित हुआ, जिसने आगे चलकर सीमित लेकिन सटीक जवाबी कार्रवाई जैसी रणनीतियों की नींव रखी।

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