केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तीखा रुख अपनाते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल को कानून समीक्षा या मंजूरी देने के लिए समय-सीमा में बांधने के फैसले का विरोध किया है। सरकार ने अपनी याचिका में संविधान में शक्तियों के स्पष्ट विभाजन को आधार बनाते हुए कहा कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के प्रभाव क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
इससे पहले, सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित 10 लंबित विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति के फैसले के लिए समय-सीमा निर्धारित की थी। न्यायालय ने कहा था कि यदि कोई निर्णय तय अवधि—एक माह से तीन माह—में नहीं लिया जाता है, तो राज्य सरकार कोर्ट में जा सकती है और संदिग्ध निष्क्रियता को चुनौती दे सकती है।
केंद्र सरकार ने अपने विस्तृत जवाब में यह तर्क दिया कि संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति-राज्यपाल की शक्तियों का बंटवारा स्पष्ट रूप में तय किया है, और इसमें समय-सीमा लागू करना न्यायपालिका की सीमाओं में नहीं आता। साथ ही, अदालत के इस कदम को शक्ति विभाजन सिद्धांत का उल्लंघन बताया गया है।
इस मामले में सुनवाई 19 अगस्त से शुरू होने वाली है। चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की बेंच इस मामले को सुनेगी, जिसमें प्रत्येक पक्ष को साथ-साथ चार-चार दिन का अवसर मिलेगा। सुनवाई की पूरी प्रक्रिया 10 सितंबर तक संपन्न होने की उम्मीद है।
इस मसले पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) का उपयोग करते हुए 14 संवैधानिक सवाल अदालत के समक्ष रखे हैं, जिनमें ‘निर्धारित समय-सीमा की वैधता’ और ‘deemed assent’ की व्याख्या शामिल है।
कुछ राजनीतिक हस्तियों ने भी इस कदम की आलोचना की है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने केंद्र की रणनीति को न्यायपालिका और राज्य सरकारों की स्वायत्तता को चुनौती देने वाला कदम बताया है और इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए खतरा करार दिया है।