Site icon Prsd News

सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन पर गंभीर सवाल उठाए, महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई फिर गरज़ी

download 18

मुस्लिम पर्सनल लॉ में लंबे समय से प्रचलित तलाक-ए-हसन (Talaq-e-Hasan) की प्रथा अब सर्वोच्च न्यायालय की कठघरी में है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस तरीके की तलाक प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं और यह संकेत दिया है कि वह इसे रद्द करने पर विचार कर सकता है। यह मामला केवल एक धार्मिक प्रथा के पुनरावलोकन तक सीमित नहीं है, बल्कि महिलाएं इस प्रथा को लैंगिक असमानता और सम्मान की दृष्टि से चुनौती दे रही हैं।

क्या है तलाक-ए-हसन?
तलाक-ए-हसन वह तरीका है जिसमें पति अपनी पत्नी को तीन महीने में महीने में एक-एक बार ‘तलाक’ कहकर तलाक देता है। इस प्रक्रिया के दौरान, यदि पति और पत्नी के बीच सुलह हो जाती है, तो तलाक वापस लिया जा सकता है। लेकिन अगर तीसरे तलाक के बाद भी समझौता न हो, तो यह अंतिम माना जाता है।

महिलाओं के अधिकार और चुनौती
कुछ मुस्लिम महिलाएं इस प्रथा को “मनमाना” और “भेदभावपूर्ण” मानती हैं। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में बड़ी याचिकाएँ दायर की हैं, जिसमें उन्होंने यह दावा किया है कि तलाक-ए-हसन महिलाओं की गरिमा और समानता के अधिकार (जैसे कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21) के खिलाफ है। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं और अन्य पक्षों से राय मांगी है।

न्यायपालिका की प्रतिक्रिया
सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-हसन की संवैधानिकता पर गहराई से विचार करने का संकेत दिया है। कोर्ट ने सवाल उठाया है कि क्या 2025 के समय में “सभ्य समाज” इस तरह की प्रथा को बरकरार रखे। इसी मुद्दे को देखते हुए, कोर्ट ने विभिन्न पक्षों से उनकी दलीलें मांगी हैं और मामले की सुनवाई आगे बढ़ी है।

विकल्प और अन्य इस्लामी तलाक के तरीके
तलाक-ए-हसन ही इस्लाम में तलाक का एक मात्र तरीका नहीं है। खुला तलाक (khula) और तलाक-ए-तफवीज (Talaq-e-Tafveez) जैसी व्यवस्थाएँ भी मौजूद हैं, जिनमें महिलाएं तलाक की मांग कर सकती हैं या पति द्वारा उन्हें तलाक देने का अधिकार पहले से सौंपा जा सकता है।

निहितार्थ और आगे की राह
यदि सुप्रीम कोर्ट तलाक-ए-हसन को असंवैधानिक घोषित कर देता है, तो यह मुस्लिम पर्सनल लॉ में एक बड़ा बदलाव हो सकता है। यह न सिर्फ महिलाओं को अधिक अधिकार देगा, बल्कि समाज में तलाक की पारंपरिक इस्लामी प्रथाओं पर भी पुनर्विचार को बढ़ावा देगा। इसके साथ ही, यह फैसला इस बात का भी संकेत देगा कि कैसे धार्मिक और पर्सनल लॉ को भारतीय संवैधानुमा एवं आधुनिक मूल्यों के साथ संतुलित किया जा सकता है।

Exit mobile version