
भारत में निजी क्षेत्र की कंपनियों की चमक-धमक के बीच एक और किन्ना पहलू — बंद होती कंपनियों का — सोमवार को संसद में उजागर हुआ। Ministry of Corporate Affairs (कॉरपोरेट मामलों का मंत्रालय) द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों में बताया गया कि पिछले पाँच सालों में देश भर में कुल 2,04,268 निजी कंपनियाँ बंद कर दी गई हैं।
मंत्रालय के राज्य मंत्री Harsh Malhotra के लिखित जवाब के अनुसार, वर्ष 2022-23 इस सिलसिले में सबसे सक्रिय रहा — अकेले उस साल ही 83,452 कंपनियाँ बंद की गईं। पिछले सालों में यह संख्या क्रमशः 2021-22 में 64,054, 2020-21 (कोविड काल) में 15,216, 2023-24 में 21,181 और इस वित्त वर्ष (2024-25) अब तक 20,365 रही।
सरकार ने स्पष्ट किया कि बंद होने वाली कंपनियों में सिर्फ घाटे में चलने वाली ही नहीं, बल्कि वे भी शामिल हैं जिनका मर्जर हुआ, नाम बदला गया, या जो अधिनियम-2013 के तहत “रिकॉर्ड से हटाई गयी” यानी ‘स्ट्राइक-ऑफ’ की गयी थीं। इस अभियान का उद्देश्य उन निष्क्रिय या ‘शेल कंपनियों’ को हटाना था, जिनका कोई व्यावसायिक क्रियाकलाप नहीं था।
हालाँकि, इस भारी संख्या में कंपनियाँ बंद होने का मतलब सिर्फ कारोबारी मसला नहीं है — इसका असर रोज़गार पर भी पड़ता है। जब मंत्री से यह पूछा गया कि बंद हुई कंपनियों के कर्मचारियों के पुनर्वास या पुनर्नियोजन के लिए कोई योजना है, तो उनका कहना था कि “ऐसा कोई प्रस्ताव फिलहाल विचाराधीन नहीं है।”
सदन में ‘शेल कंपनियों’ और मनी-लाँड्रिंग की जांच को लेकर भी चिंता दिखाई गई। सरकार ने कहा कि हालांकि ‘शेल कंपनी’ शब्द कानूनी तौर पर परिभाषित नहीं है, लेकिन अब प्रवर्तन एजेंसियों — जैसे Enforcement Directorate (ED) और आयकर विभाग — के बीच समन्वय मजबूत किया जा रहा है ताकि यदि किसी कंपनी का उपयोग अवैध रूप से हो रहा हो, तो उस पर कड़ी निगरानी हो सके।
सरकार ने यह भी संकेत दिया कि अब उद्योगों के लिए विशेष टैक्स छूट या अन्य प्रोत्साहन देने की नीति से हटकर, व्यवस्था को पारदर्शी एवं सरलीकृत (simplified) बनाने की ओर अग्रसर है। इसका मकसद कंपनियों को सुगम कारोबारी वातावरण देना है — ताकि वही सफल रहें और निष्क्रिय संस्थाएं स्वाभाविक रूप से समाप्त हो जाएँ।



